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गजलें और शायरी >> एक लड़का मिलने आता है

एक लड़का मिलने आता है

संजय कुन्दन

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5531
आईएसबीएन :81-267-1232-5

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प्रस्तुत है शेर-शायरी...

Ek Ladaka Milane Aata Hai

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

यह दूसरा इत्तफ़ाक़ है। पहला इत्तफ़ाक़ था जब किशन कालजयी ने मुझसे कुछ कलाम माँगे थे और मेरी बेचैनियाँ एक मुख़्तसर-सी-किताब ‘बेचैनियाँ’ की शक़्ल में मंज़रे-आम पर आईं। दूसरा इत्तफ़ाक़ रवीन्द्र भारती और अशोक महेश्वरी ने पैदा किया और ‘इक लड़का मिलने आता है...’ आपके सामने है।
मैं एक बात फिर साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मैं उर्दू लिपि से वाक़िफ़ नहीं लेकिन उर्दू ज़ुबान से इतनी मुहबब्त है कि सारे एहसासात इसी एक ज़ुबान के दरवाज़े पर ख़ैरात के लिए मुन्तज़िर हैं। और मुझे इस बात से ख़ुशी है कि उर्दू ने मेरे एहसासात को नाउम्मीद नहीं किया है।
दूसरी बात अपने कलाम के बारे में कहना चाहता हूँ। शायर अपने कलाम की माँ होता है। वह उन्हें रचता-गढ़ता है। वह उन्हें पैदा करता है। लेकिन यहाँ बात एकदम उल्टी है। पहले से आ रही दलील के बरअक्स है। मेरी हर नज़्म और ग़ज़ल ने मुझे हर बार नए सिरे से पैदा किया है। जब भी किसी ख़याल को मुजस्सम होने की ज़रूरत हुई है उसने मेरा सहारा ले लिया है। इसलिए ये सारे कलाम मेरे रद्दे-अमल नहीं मैं इनका रद्दे-अमल हूँ। और ये सारे खयाल और एहसासात कौन हैं जो नज़्मों और ग़ज़लों की शक़्ल में आ गए, मैं नहीं जानता। हो सकता है ये सब आपके ख़याल हों। और यकीनन। एक लड़का मिलने आता है....’ आपका ही सरमाया है।

संजय कुमार कुन्दन

मगर क्यूँ नज़्म लिक्खूँ



अजब सी एक
बचकानी-सी ख़्वाहिश है
मुहब्बत की कोई इक नज़्म लिक्खूँ
किसी माशूक़ की जुल्फों के साए
लबों1 की नर्मियों की थरथराहट
लरज़ते काँपते क़दमों की आहट
किसी मासूम सीने में छुपी बेबाक धड़कन
कोई सहसा-सा कमरा, कोई वीरान आँगन
कहीं बाँहों में सिमटी कोई आग़ोश2 की हसरत
किसी एक ख़ास लम्हे में छुपी मासूम लज़्ज़त3

मगर क्यूँ नज़्म लिक्खूँ
कि नज़्में इस तरह लिक्खी नहीं जातीं
वो आती हैं दबे पाँवों, बहुत आहिस्ता
कि जैसे कोई बच्चा
दम साधे हुए
किसी एक फूल पर बैठी हुई
तितली पकड़ने को
बढ़ा आता हो ख़ामोश क़दमों से

इधर कितने महीनों से
ज़िन्दगी के सख़्त लम्हों को
दाँतों से पकड़े
थक गया हूँ

मुन्तज़िर4 हूँ उस मासूम बच्चे का
जो नाज़ुक उँगलियों से
पकड़ कर हौले-से मुझको
ज़िन्दगी के सख़्त लम्हों से
जुदा कर दे
परों पे हैं अगर कुछ रंग मेरे
उसे वो
चुटकियों में अपनी भर ले

मगर कोई नहीं आया
मगर कोई नहीं आया

मैं खिड़की खोल कर
राहों पे कब से देखता हूँ
अजब सूखे से मौसम में
वही एक गुलमोहर का पेड़
धूप की ज़द पर
सुर्ख़ फूलों को सहेजे
बहुत तनहा खड़ा है

1.होठों, 2.आलिंगन 3.आनंद 4.प्रतीक्षारत



भेड़िए


आज का दिन अजब-सा गुज़रा है
इस तरह
जैसे दिन के दाँतों में
गोश्त का कोई मुख़्तसर रेशा
बेसबब आ के
फँस गया-सा हो
एक मौजूदगी हो अनचाही
एक मेहमान नाख़रूश जिसे
चाहकर भी निकाल ना पाएँ
और जबरन जो तवज्जों1 माँगे
आप भी मसनुई2 तकल्लुफ़3 से
देखकर उसको मुस्कराते रहें

भेड़िए आदमी की सूरत में
इस क़दर क्यों क़रीब होते हैं

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1.ध्यान, 2.कृत्रिम, 3.औपचारिकता।


सरमाया दिन-भर का



एक धुन को सुना
और बेख़ुद हुआ
जिस्म के हर बुने-मू1
में बजती रही

एक बच्चे को देखा
ज़रा हँस दिया
उसके चेहरे से
टकरा के मेरी हँसी
उम्र के कितने सालों
से तनहा हुई
एक मासूमियत
गर्म, वहशी हवाओं
में घुल-सी गई

एक लड़की हँसी
खनखनाती हुई
शोख़, अल्हड़ हँसी
सख़्त दिल में कहीं कुछ
चटख-सा गया
चन्द बूँदें गिरीं
घास की सब्ज नोकें-सी
उगने लगीं

झुर्रियों से भरा
एक चेहरा दिखा
एक शफ़क़त2-भरा सायबां3
मिल गया

शाम लौटा हूँ घर
जेब ख़ाली लिये
फिर भी दामन भरा है
ये एहसास है
एक सरमाया4
दिन भर का हासिल है जो
मेरे जज़्बों की मेहनत
मेरे पास है

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1.रोम, 2.स्नेह, 3.छत, 4.सम्पत्ति


कि बेसबब ही सही



उदास लम्हे
ज़रा-सा चटख ही जाते हैं
कि उनमें चुपके से
ठहरे ज़रा ही देर सही
कोई मसरूफ़1 ख़ुशी
और फिर उठ के
अपनी राह चले

सियाह रात
मुकम्मिल2 कभी नहीं होती
वो जब भी आती है
अपने शबाब3 पर
कि वहीं
रोशनी चुपके से,
अपने चमकते ख़ंजर से
क़त्ल कर देती है
शब4 की जवाँ उमंगों का

ये फूल, चाँद सितारे
ये कहकशाँ5, बादल
और परिन्दों की
ये कमबख़्त जाँगुसल आवाज़
राह के कोने पे
बैठा वो फ़रिश्ता नन्हा
और रिक्शे पे वो
चढ़ती हुई कमसिन लड़की
आह, ये गुलमोहर के
सुर्ख़-से फूल

उदास लम्हों की तस्वीर
कैसे पूरी हो
कोई तारीकी6
क्यूँ मुकम्मिल हो
उदास लम्हे कहाँ तक
उदास रह पाएँ
कि बेसबब7 ही सही
मुस्करा दें हम दोनों

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1.व्यस्त, 2.पूर्ण, 3.यौवन, 4.रात्रि, 5.आकाशगंगा 6.अँधेरा, 7.बिना कारण।


एक लड़का मिलने आता है...



एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

कुछ ऐसी कशिश1 इस शाम में है
इस फितरत2 के इनआम3 में है
ये हल्का अँधेरा, हल्की ख़लिश
जिसमें जज़्बों का राज़ पले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

वो बन्द कमरे में होते हैं
वो हँसते हैं या रोते हैं
उनकी बातों की शाहिद4 है
जो एक लरज़ती5 शम्अ जले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

बातें करते खो जाता है
लड़का ग़मगीं हो जाता है
लड़की डरती है मुस्तक़बिल6
शायद गहरी इक चाल चले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

क़स्बे के शरीफ़ इन हल्क़ों में
ग़ुस्सा है मगर इन लोगों में
इनके भी घर में लड़की है
क्यूँ इश्क़ का ये व्योपार चले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

अब कैसे कहूँ इन दोनों से
एक प्यार में डूबे पगलों से
बस्ती से बाहर इश्क़ करें
बस्ती के दिल में खोट पले
एक लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

जो कुछ भी है दुनिया का है
फिर दिल का क्यूँ ये धंधा है
क्यूँ सदियों से मिलते हैं दिल
दुनिया में जब-जब शाम ढले
क्यूँ लड़का मिलने आता है
उस लड़की से कुछ शाम ढले

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1.आकर्षण, 2.प्रकृति, 3.पुरस्कार, 4.गवाह, 5.काँपती, 6.भविष्य।


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